शुक्रवार, 20 अगस्त 2010
गुरुवार, 19 अगस्त 2010
बुधवार, 18 अगस्त 2010
मंगलवार, 17 अगस्त 2010
सोमवार, 16 अगस्त 2010
रविवार, 15 अगस्त 2010
गुरुवार, 12 अगस्त 2010
बुधवार, 11 अगस्त 2010
सोमवार, 9 अगस्त 2010
रविवार, 8 अगस्त 2010
1981 Dard - Pyar Ka Dard Hai Meetha Meetha Pyara Pyara
प्यार खुदा है तो खोने ना देना
करते हो प्यार जब किसी से तो
कभी उस प्यार को रोने ना देना
शनिवार, 7 अगस्त 2010
शुक्रवार, 6 अगस्त 2010
गुरुवार, 5 अगस्त 2010
बारमेर न्यूज़ track

: राजस्थान की समृद्ध संस्कृति एवं रीति-रिवाज आधुनिकता की इस अंधी दौड़ में खोते जा रहे हैं। आधुनिकता और पाश्चात्य सभ्यता के साथ आये बदलाव ने परम्परागत रीति-रिवाजों को न केवल बदलकर रख दिया, अपितु राजस्थान की समृद्ध संस्कृति अपना आकार खोती जा रही हैं।रोजमर्रा की भागदौड़ और पहियों पर घूमती वातानुकूलित जिन्दगी के बीच समारोह के दौरान साफा उपलब्ध नहीं होने अथवा इस ओर किसी का ध्यान आकृष्ट नहीं होने पर ऐसे मौके पर इसका प्रबन्ध नहीं हो पाता है। चुनिन्दा स्थानों से साफा लाने की जहमत कोई नहीं करता, लेकिन साफे का स्थान बरकरार है। इस स्थान को बदला नहीं जा सकता। दुनिया के कानून, संविधान तो बदले जा सकते हैं। मगर ‘साफे’ का स्थान नहीं बदला जा सकता। इसका महत्व इसी कारण बरकरार हैं। विभिन्न समारोहों में अतिथियों का साफा पहनाकर स्वागत करने की परम्परा है। ‘साफा’ राजस्थान की समृद्ध संस्कृति और परम्परा का अभिन्न हिस्सा हैं। लेकिन, राजपूती आन-बान-शान का प्रतीक साफा अब सिरों से सरकता जा रहा है। युवा पीढ़ी आधुनिक होकर ‘साफे’ का महत्व समझ नहीं पा रही है। इसके विपरीत ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी ‘पाग-पगड़ी-साफे’ को इज्जत और ओहदे का प्रतीक माना जाता है। साफे को आदमी के ओहदे व खानदान से जोड़कर देखा जाता हैं। साफा पहन कर बड़े-बुजुर्ग अपने आपको सम्पूर्ण व्यक्तित्व का मालिक समझते हैं। ‘साफा’ व्यक्ति के समाज का प्रतीक माना जाता हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में अलग-अलग समाज में अलग-अलग तरह के साफे पहने जाते हैं। साफे से व्यक्ति की जाति व समाज का स्वतः पता चल जाता हैं। ‘पगड़ी’ आदमी के व्यक्तित्व की निशानी समझी जाती है। ‘पगड़ी’ की खातिर आदमी स्वयं बरबाद हो जाता है, मगर उस पर आंच नहीं आने देता। ‘साफा’ ग्रामीण क्षेत्रों में सदा ही बांधा जाता है। खुशी और गम के अवसरों पर भी ‘साफे’ का रंग व आकार बदल जाता हैं। खुशी के समय रंगीन साफे पहने जाते हैं। जैसे शादी-विवाह, सगाई या अन्य उत्सवों, त्यौहारों पर विभिन्न रंगो के साफे पहने जाते हैं। मगर, गम के अवसर पर खाकी अथवा सफेद रंग के साफे पहने जाते हैं, ये शोक का प्रतीक होते हैं। हालांकि, मुस्लिम समाज (सिन्धी) में सफेद साफे शौक से पहने जाते हैं। सिन्धी मुसलमान सफेद ‘पाग’ का ही प्रयोग करते हैं।ग्रामीण क्षेत्रों में आपसी मनमुटाव, लडाई-झगडों का निपटारा ‘साफा’ पहनकर किया जाता है। जैसलमेर व बाड़मेर जिलों के कई गांवो में आज भी अनजान व्यक्ति अथवा मेहमानों को ‘नंगे’ सिर आने की इजाजत नहीं हैं। राजपूत बहुल गांवों में साफे का अत्यधिक महत्व है। इन गांवो में सामंतशाहों के आगे अनुसूचित जाति, जनजाति (मेघवाल, भील आदि) के लोग साफा नहीं पहनते, अपितु सिर पर तेमल (लूंगी) अथवा टवाल बांधते हैं। इनके द्वारा सिर पर पगड़ी न बांधने का मुख्य कारण ‘ठाकुरों या सामन्त’ के बराबरी न करना है। विवाह, सगाई अथवा अन्य समारोह में साफे के प्रति परम्पराओं में तेजी से गिरावट आई है। अभिजात्य परिवारों में साफा आज भी ‘स्टेटस सिम्बल’ बना हुआ हैं। अभिजात्य वर्ग में साफे के प्रति मोह बढ़ता जा रहा है। शादी विवाह या अन्य समारोह में ‘साफे’ के प्रति छोटे-बड़ों का लगाव आसानी से देखा जा सकता है।हाथों से बांधने वाले ‘साफे’ का जवाब नहीं होता। हाथों से साफे को बांधना एक हुनर व कला है। इस कला को जिंदा रखने वाले कुछ लोग ही बचे हैं। आजकल चुनरी के साफों का अधिक प्रचलन है। लहरियां साफा भी प्रचलन में है। मलमल, जरी, तोता, परी कलर के साफे भी पसन्द किए जा रहे हैं। जोधपुरी साफा पहनना युवा पसन्द करते हैं, जबकि बड़े-बुजुर्ग जैसलमेरी साफा, जो गोल होता है, पहनना पसन्द करते हैं। केसरिया रंग का गोल साफा पहनने का प्रचलन अधिका हैं। बहरहाल, साफे का महत्व आज भी कायम हैं।
रविवार, 1 अगस्त 2010
पोलिथीन की शव यात्रा निकाली
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बाडमेर। राज्य सरकार ने अघिसूचना जारी कर जिले में एक अगस्त, 2010 से प्लास्टिक कैरी बैग के विनिर्माण, भण्डारण, आयात, विक्रय एवं परिवहन को पूर्ण रूप से प्रतिबन्घित कर दिया है। जिला मुख्यालय पर गांधी चौक से डाक बंगले तक रविवार को पोलिथीन की शव यात्रा निकाली जिसमें जिले के जिला कलक्टर गौरव गोयल, प्रभारी मंत्री पुलिस अधीक्षक सन्तोष चालके, मुख्य कार्यकारी अघिकारी रामावतार मीणा, अतिरिक्त मुख्य कार्यकारी अघिकारी चूनाराम विश्नोई, उपखण्ड अघिकारी सी.आर.देवासी, बाडमेर नगर पालिका अध्यक्ष श्रीमती उषा जैन, बालोतरा महेश चौहान समेत व्यापार मण्डलों के प्रतिनिघि, जन प्रतिनिघि तथा संबंघित अघिकारी उपस्थित थे। जिले में इसके प्रति जन जागरण के लिए जागरूकता रैलियां निकाली ।
जिला कलक्टर गौरव गोयल ने बताया कि एक अगस्त से जिले में कोई भी व्यक्ति, दुकानदार, विक्रेता, थोक विक्रेता, फुटकर विक्रेता, व्यापारी आदि बेचेने के लिए प्लास्टिक के कैरी बैग का उपयोग नहीं करेगा। उन्होंने बताया कि एक अगस्त से प्रभावी होने वाली इस अघिसूचना का उल्लंघन करने पर पर्यावरण संरक्षण अघिनियम 1986 के तहत पांच वष्ा का कारावास या एक लाख रूपए का जुर्माना या दोनो सजाओं से दण्डित किया जाएगा।
साथ ही यदि अघिसूचना का निरन्तर उल्लंघन किया जाता है तो उल्लंघनकर्ता को पांच हजार रूपए प्रतिदिन तक के अतिरिक्त जुर्माने से दण्डित किया जा सकता है। उन्होंने बताया कि बाडमेर तथा बालोतरा समेत सभी तहसील मुख्यालयों पर अघिसूचना की ठोस पालना के लिए 24 उडन दस्तों का गठन किया गया है जो उन्हें आंवटित क्षेत्रों मे एक से सात अगस्त तक प्लास्टिक कैरी बेग के प्रतिबन्ध पर पूर्ण निगरानी रखेंगे।
शनिवार, 31 जुलाई 2010
शुक्रवार, 30 जुलाई 2010
गुरुवार, 29 जुलाई 2010
बुधवार, 28 जुलाई 2010
बारमेर न्यूज़ ट्रैक kaajal

म्हनै रमतां ने काजल टकी लाधी ऐ मांकोरो काजलियो
पूरे राजस्थानी में जनजीवन में काजल को विशेष महत्व है। यह यहाँ के लोगों की दैनिक श्रृंगार का हिस्सा है। इसे अंजण, कज्जल, दीय- सुत, नैनसनेह, पाटणमुखी, मोहणगती आदि कई नामों से भी जाना जाता है। जिस दीये से गृहणियां काजल बनाती हैं, उसे "काजलकर' कहा जाता है। साथ- साथ अपने आप में एक बहुत बड़ा सांकेतिक अर्थ भी रखना है। राजस्थानी लोक गीतों में भी काजल की कई बार चर्चा आ जाती है :-
काली काली काजरिया री रेखज्यूं भूरोड़े भाख्र में चमके बीजली
ढ़ोले री मूभल हाले तो ले चालू मुरधर देश, कोई विरहिगी अपने प्रियतम को गीत के माध्यम से समझाती है कि किस स्थिति में काजल सुखदायी होता है :-
काजल भरियो कूंपालो जी कोई पड़यो पिलंग अध बीचउनाला री रुत बुरी, थांनै खेलत गरभी होम कोरो काजलियोचौमासा री रुत बुरी, खेलत रल गावे काजरियोकाजरियो मत सार चौमासे - कोरो का जलियोनैणों नें समायो रे सियाला री रात का जलियो थांने आणन्द छाय- कोरो काजलियो
नायिका जब अपने प्रेमी से रुठ जाती है, तो बिना कुछ बोले अपने व्यथा का प्रदर्शन अपने काजलभरे नयनों से कर देती है :-
ना वे गावै ना हँसै, मुख बोले बोल।नैणां काजल ना दियो, ना गल पऋयों हार।।
एक नवविवाहिता, जो घूंघट की ओट से तिरछी नजरों से देखती हैं, के लिए एक कवि ने लिखा है:-
बेसर बणी मांग सिर ऊपर, मोत्यां बिंदी झलकै।काजल रेख नैणां में, घूंघट मच्छियां पलकै।।
मारवाड़ क्षेत्र में घर- घर में "घूमर' गीत गाया जाता है। जसोल वाले भटियाणी जी का एक घूमर इस प्रकार है :-
म्हनै रमतां ने काजल टोकी लाधी ऐ मांम्हारी घूमर है नखराली है ऐ मांम्हनै राठौड़ा रै घर भल दीजो ऐ मांम्हनै राठौड़ां रो पेय प्यारो लागे ऐ मां
भक्त कवयित्री मीरां ने काजल के संदर्भ में कहा है :-
गैणा गांठा राणा हम सब त्याग्या,लाग्यो कर रो चूड़ो।काजल टीकी हम सब त्याग्या,त्याग्यो बांधणा जूड़ो।।
इसका तात्पर्य यह है कि मीरा ने कृष्ण विरह में सारे सांसारिक श्रृंगारों का त्याग कर दिया है। काजल इसलिए त्यागा कि श्री कृष्ण का श्याम- सलोना रुप नयनों में रच- बस गया है।वैसे तो काजल सौभाग्यवती स्रियों का श्रृंगार है, परंतु इतिहास गवाह है कि कई बार मृत पति के शव के पास बैठकर यहाँ की वीरांगनाओं ने एक प्रतिज्ञा के ओज के साथ काजल की रेख का अंजन किया। सती का श्रृंगार भी काजल के बिना अधुरा माना जाता था।काजल के साथ-साथ काजलिया रंग भी महत्वपूर्ण है। मारवाड़ क्षेत्र में "काजली तीज' सुहागिनों का त्योहार है। इस दिन सुहागिन स्रियाँ व्रत - उपवास रखती है और सुहाग के प्रतीक के रुप में कागज, टीकी, चूड़ियाँ, मेंहदी और मजीठ आदि का दान करती है। काजल के बिना कई धार्मिक व सामाजिक कृत्य अधूरे माने जाते हैं।
मंगलवार, 27 जुलाई 2010
सोमवार, 26 जुलाई 2010
रविवार, 25 जुलाई 2010
शनिवार, 24 जुलाई 2010
शुक्रवार, 23 जुलाई 2010
गुरुवार, 22 जुलाई 2010
barmer news track
हर अदा, हर खता भी बहती है .
दिल मैं मेरे ख़याल आए तो,
बात उनकी ज़ुबान पे आती है.
सब मेरे हाल पर परेशान है.न
एक वह हैं की मुस्कुराती है.न.
गीत मेरा लिखा ही है शायद,
वह जो हौले से गुन गुनाती है.न
हाथ दीवाने के दे अल्लाह कुछ ऐसी कलम,
आस्मान पर लीख के जाऊं है उन्ही से प्यार है!
ख़ास लिखा है ख़त मैं, ज़रा आहिस्ता बोलियेगा
भेज रहा हूँ दिल अपना, ज़रा आहिस्ता खोलियेगा
तू इस तरह से मेरे दिल मैं शामिल है
जहाँ भी जाऊं लगता है तेरी महफ़िल है
रस्ते मैं गीरे हैं फूल, उठता है कोई कोई
मुहब्बत करते हैं सभी, निभाता है कोई कोई
ज़िंदगी एक फूल है और मोहब्बत उस का शेहेद
प्यार एक दरिया है , और मेहमूब उसकी सरहद
जुखा कर उठा न सके सर मेरे सवाल पर,
जुल्फों का नकाब गिरा है , मेरे दिल का राज़ ले कर
बुधवार, 21 जुलाई 2010
मंगलवार, 20 जुलाई 2010
सोमवार, 19 जुलाई 2010
रविवार, 18 जुलाई 2010
शनिवार, 17 जुलाई 2010
शुक्रवार, 16 जुलाई 2010
गुरुवार, 15 जुलाई 2010
बुधवार, 14 जुलाई 2010
मंगलवार, 13 जुलाई 2010
सोमवार, 12 जुलाई 2010
शनिवार, 10 जुलाई 2010
शुक्रवार, 9 जुलाई 2010
रविवार, 4 जुलाई 2010
शनिवार, 3 जुलाई 2010
शुक्रवार, 2 जुलाई 2010
Rajasthani folk music are the uncrowned Ssfi Fakir

Rajasthani folk music are the uncrowned Ssfi Fakir
Pakistan's popular folk and Sufi singer Mohammed Fakir Ssfi originally resident of Barmer district. Mystic India in 1965 the family had moved to Sindh in Pakistan. Area saint's father - known folk singer was. Thar's folk songs and music in Pakistan, he waved the flag. Inherited from his father, folk song - Music Treasures of the saint taken seriously. Into the mystic folk songs sing in unsurpassed style. The hugely popular in Pakistan was like a mystic Ssfi Shufiyana. Ssfi wonderful musical like a saint because soon found international stage. Dhoom Antararashtyy forums Ssfi saint was created. Ssfi of mystic folk songs are so juicy and Harmonic are the same, do not answer them in musical devotion. Shufiyana guess when mystic Amir Khusrau, Shah Baba Religion, Madho Shah Hussain, Sultan Bahu, Khwaja Ghulam Farid's compositions sing, the audience go crazy. Many mystic Hshaoan Sindhi, Marwari, Ssiraqui, Punjabi, Urdu and East when its different like a singing, the audience are immersed in their musical juices. Born in 1961 in the district of Barmer Thar region Ssfi Maangniyar traditional folk musical saint from his father and learned Commaycha recital. He later sarangi player Ustad Majid Khan, who at the time of the famous singer and sarangi player Pak radio was the folk song - music niceties learned and perfected the instrument in recital. While the niceties of musical Shufi Ustad Salamat Ali Khan Sahib in the evening with family learned 84. Ssfi Meera, Kabir, Tulsidas, Abdul Latif Hitai, mobile Sarmaast, Shah Baba Religion sing devotional compositions very seriously. Ssfi Maangniyar children folk songs - traditional folk song by music training - are building on the tradition of music. Mystic India several times through its programs have spread Shufi and devotional musical tone.
गुरुवार, 24 जून 2010
बारमेर न्यूज़ track
मंगलवार, 22 जून 2010
बारमेर न्यूज़ track
राजस्थान के बाड़मेर स्थित मोक्षधाम श्मशान में सोमवार को शहनाई की धुन के साथ मंगल गीतों की गूंज के बीच स्मृति बगीचे में सजा मंडप। घोड़ी पर सवार दुल्हा बारातियों के साथ पहुंचा तो वधू पक्ष के लोगों ने स्वागत में पलक-पांवड़े बिछा दिए। यह नजारा कौशल्या के शादी समारोह का था। शाम को शुभ मुर्हूत में कौशल्या ने रेवंत के साथ अग्नि को साक्षी मानते हुए सात फेरे लिए।श्मशान घाट मोखी नंबर आठ में महिला चौकीदार लीलादेवी की पुत्री कौशल्या का विवाह सोमवार को श्मशान परिसर में धूमधाम से हुआ। इस अनूठे विवाह समारोह को देखने लोगों की भीड़ उमड़ी। सोमवार को सांय पांच बजे समदड़ी निवासी खेमाराम गुसर के पुत्र रेवंत की बारात शमशान घाट पहुंची, जहां गाजे-बाजे के साथ बारातियों का स्वागत किया गया। दुधिया रोशनी से श्मशान घाट जगमगा रहा था। दुल्हा घोड़ी पर सवार होकर बारातियों के साथ मंडप स्थल पहुंचा, जहां शुभ मुर्हुत में कौशल्या ने उसके साथ सात फेरे लगाए। इस दौरान गाजे-बाजे के साथ युवाओं ने जमकर नृत्य किया। महिलाओं ने मंगल गीत गाकर शादी की रस्में अदा कीं। देर रात तक चले शादी समारोह में बारातियों ने सहभोज का भरपूर आनंद लिया।
रविवार, 20 जून 2010
बारमेर न्यूज़ TRACK

बाड़मेर: राजस्थान के मरुधरा के गौरव बाड़मेर जिले की समृद्ध लोक कला, गीत, संगीत तथा लोक संस्कृति का बखान अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर हो रहा है। स्थानीय लोक कलाकार झोपड़ों से निकल अलबर्ट हॉल तक जा पहुंचे हैं। जिले की लोक गीत गायन की अपनी विशिष्ट शैली ने यहां के मांगणियार लोक कलाकारों को एक नई पहचान दी है।यहां सामाजिक, पारिवारिक तथा लौकिक जीवन का कोई एक पहलू नहीं हैं, जो लोक गीतों की स्वर लहरियों से अछूता रह गया हो। जीवन का आनंद, उत्साह और मानवीय सम्बन्धों का अपना प्रवाह इन लोक गीतों में मुखर हुआ है। प्रकृति और मनुष्य के सम्बन्धों में हास्य व रूदन की भावपूर्ण अभिव्यक्ति तथा लोक जीवन के सभी रंगों व रासों को लोकगीतों में पाया जा सकता हैं। नारी-पुरूष के कोमल कंठों से निकले मरूधरा के लोकगीत श्रोताओं को अभिभूत कर देते हैं। व्यंग्य तथा जीवन के आदेश भी लोकगीतों में मिल जाते हैं।प्रकृति के विभिन्न उपादानों को इन गीतो में बड़ी करूण अभिव्यक्ति मिली है। चमेली, मोगरा, हंजारा, रोहिडा के फूल भी तथा कुरजा, कोआ, हंस, मोर (मोरिया), सुवटिया (तोता), सोन चिड़िया, चकवा-चकवी जैसी प्रेमी-प्रेमिका प्रियतमाओं, विरही-विरहणियों आदि के सुख-दुख की स्थितियों में संदेश वाहक बने हैं। विश्व भर में अपनी जादुई आवाज, खड़ताल वादन के माध्यम से अपनी धाक जमाने वाले कलाकारों ने थार नगरी का नाम विश्व में ऊंचा किया है। बाड़मेर जिले के कण-कण में लोकगीत रचे बसे हैं।माटी की सोंधी महक इन लोकगीतों के स्वर को नई ऊंचाइया प्रदान करती है। फागोत्सव के दौरान फाग गाने की अनूठी परम्परा, बालकों के जन्म अवसर पर हालरिया, विरह गीत, मोरूबाई, दमा दम मस्त कलन्दर, निम्बुडा-निम्बुडा, बींटी महारी, सुवटिया, इंजन री सीटी में मारो मन डोले, बन्ना गीत, अम्मादे गाड़ी रो भाड़ो, कोका को बन्नी फुलका पो सहित सैंकडों लोकगीत परम्पराओं का निर्वाह कर रहे हैं।
मंगलवार, 15 जून 2010

बाड़मेर. कशीदाकारी भारत का पुराना और बेहद खूबसूरत हुनर है । बेहद कम साधनों और नाममात्र की लागत के साथ शुरु किये जा सकने वाली इस कला के कद्रदान कम नहीं हैं । रंग बिरंगे धागों और महीन सी दिखाई देने वाली सुई की मदद से कल्पनालोक का ऎसा संसार कपड़े पर उभर आता है कि देखने वाले दाँतों तले अँगुलियाँ दबा लें । लखनऊ की चिकनकारी,बंगाल के काँथा और गुजरात की कच्छी कढ़ाई का जादू हुनर के शौकीनों के सिर चढ़कर बोलता है। इन सबके बीच सिंध की कशीदाकारी की अलग पहचान है । तेज़ रफ़्तार ज़िन्दगी में जबकि हर काम मशीनों से होने लगा है, सिंधी कशीदाकारों की कारीगरी "हरमुचो" किसी अजूबे से कम नज़र नहीं आती । बारीक काम और चटख रंगों का अनूठा संयोजन सामान्य से वस्त्र को भी आकर्ष्क और खास बना देता है । हालाँकि वक्त की गर्द इस कारीगरी पर भी जम गई है । नई पीढ़ी को इस हुनर की बारीकियाँ सिखाने के लिये भोपाल के राष्ट्रीय मानव संग्रहालय ने पहचान कार्यक्रम के तहत हरमुचो के कुशल कारीगरों को आमंत्रित किया । इसमें सरला सोनेजा, कविता चोइथानी और रचना रानी सोनेजा ने हरमुचो कला के कद्रदानों को सुई-धागे से रचे जाने वाले अनोखे संसार के दर्शन कराये । हुरमुचो सिंधी भाषा का शब्द है जिसका शब्दिक अर्थ है कपड़े पर धागों को गूंथ कर सज्जा करना। हुरमुचो भारत की प्राचीन और पारम्परिक कशीदा शैलियों में से एक है। अविभाजित भारत के सिंध प्रांत में प्रचलित होने के कारण इसे सिंधी कढ़ाई भी कहते हैं। सिंध प्रांत की खैरपुर रियासत और उसके आस-पास के क्षेत्र हरमुचो के जानकारों के गढ़ हुआ करते थे। यह कशीदा प्रमुख रूप से कृषक समुदायों की स्त्रियाँ फसल कटाई के उपरान्त खाली समय में अपने वस्त्रों की सज्जा के लिये करती थीं। आजादी के साथ हुए बँटवारे में सिंध प्रांत पाकिस्तान में चला गया किंतु वह कशीदा अब भी भारत के उन हिस्सों में प्रचलित है, जो सिंध प्रान्त के सीमावर्ती क्षेत्र हैं। पंजाब के मलैर कोटला क्षेत्र, राजस्थान के श्री गंगानगर, गुजरात के कच्छ, महाराष्ट्र के उल्हासनगर तथा मध्य प्रदेश के ग्वालियर में यह कशीदा आज भी प्रचलन में है। हुरमुचो कशीदा को आधुनिक भारत में बचाए रखने का श्रेय सिंधी समुदाय की वैवाहिक परंपराओं को जाता है। सिंधियों में विवाह के समय वर के सिर पर एक सफेद कपड़ा जिसे ’बोराणी’ कहते है, को सात रंगो द्वारा सिंधी कशीदे से अलंकृत किया जाता है। आज भी यह परम्परा विद्यमान है। सिंधी कशीदे की प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें डिजाइन का न तो कपड़े पर पहले कोई रेखांकन किया जाता है और न ही कोई ट्रेसिंग ही की जाती है। डिजाइन पूर्णतः ज्यामितीय आकारों पर आधारित और सरल होते हैं। जिन्हें एक ही प्रकार के टांके से बनाया जाता है जिसे हुरमुचो टांका कहते हैं। यह दिखने में हैरिंघ बोन स्टिच जैसा दिखता है परंतु होता उससे अलग है। पारम्परिक रूप से हुरमुचो कशीदा वस्त्रों की बजाय घर की सजावट और दैनिक उपयोग में आने वाले कपड़ों में अधिक किया जाता था। चादरों,गिलाफों,रूमाल,बच्चों के बिछौने,थालपोश,थैले आदि इस कशीदे से सजाए जाते थे । बाद में बच्चों के कपड़े, पेटीकोट, ओढ़नियों आदि पर भी हरमुचो ने नई जान भरना शुरु कर दिया । आजकल सभी प्रकार के वस्त्रों पर यह कशीदा किया जाने लगा है।मैटी कशीदे की तरह सिंधी कशीदे में कपड़े के धागे गिन कर टांकों और डिजाइन की एकरूपता नहीं बनाई जाती। इसमें पहले कपड़े पर डिजाइन को एकरूपता प्रदान करने के लिए कच्चे टाँके लगाए जाते हैं। जो डिजाइन को बुनियादी आकार बनाते हैं। सिंधी कशीदा हर किस्म के कपड़े पर किया जा सकता है। सिंधी कशीदे के डिजाइन अन्य पारम्परिक कशीदो से भिन्न होते हैं।
सोमवार, 14 जून 2010
सोमवार, 7 जून 2010
शनिवार, 5 जून 2010
शुक्रवार, 4 जून 2010
बारमेर न्यूज़ track

आज विश्व में पर्यावरण सबसे ज्यादा चर्चित मुद्दा है। हम जब पर्यावरण कहते हैं तो धरती, पानी, नदियाँ, वृक्ष, जंगल आदि सभी की चिन्ता उसमें शामिल होती है। पर्यावरण की यह चिन्ता पर्यावरण से लगाव से नहीं मनुष्य के अपने अस्तित्व के खत्म हो जाने के भय से उपजी है।भय से उपजी चिन्ता में विवेक को नहीं स्वार्थ को महत्व मिलता है। फिर स्वार्थ में कभी विषय के साथ इमानदारी भी हो यह जरूरी नहीं। आप चिन्तित होने का दिखावा भी कर सकते हैं। कोई शक भी नहीं करेेगा। इसमें आस्था और श्र्रद्धा का सवाल खड़ा ही नहीं होता। आजकल पर्यावरण की इसी चिन्ता से कुछ नए नए दिवस निकल आए हैं। कोई पृथ्वी दिवस है तो कोई जलगाह दिवस और कोई पर्यावरण दिवस। अब इन दिवसों का हमारे समाज की सामूहिक स्मृति, उसके अपने पंचांग यानी कैलेण्डर से कोई रिश्ता है या नहीं इसका विचार ही नहीं होता। क्योंकि विश्वभर एक पर्यावरणीय कर्मकांड करता है सो हम भी करते हैं। फिर इस पर्यावरणीय कर्मकांड को करने के लिए तो बाकायदा अनुदान भी मिलता है, सो जिस कर्मकांड को करने से तो पांचों अंगुलियाँ घी में ही रहती हों उसे करने की होड़ को पर्यावरण चेतना कहा जाए या भेड़चाल?इस समूचे मामले का एक दूसरा पक्ष भी है। भारत को त्योहारों और पर्वों का देश कहा जाता है। हमारे देश में प्रतिदिन कोई न कोई पर्व होता है। अपना समाज स्वभाव से उत्सवप्रिय समाज है। इसलिए हर त्योहार और पर्व की कोई न कोई विशेष उत्सवपरता होती है। यह उत्सव हमारे परम्परागत पंचांग यानी कैलेण्डर से निर्धारित होते हैं। हमारा समाज अपने गुरूओं और महापुरूषों के जन्म दिन से लेकर उनके बलिदान दिवस तक सब मनाता आया है। हमारे ज्यादातर त्योहारों का रिश्ता ऋतु-चक्र आर्थात मौसम से है। इसलिए इन त्योहारों में प्रकृति से निक्टता का एक विशेष तत्व हमेशा प्रधान कर्म रहा है। यह अलग बात है कि हमने पिछले चालिस पचास वर्षों में कर्म की जगह कर्मकांड को ही प्रधान बना दिया है। कर्म दैनिक जीवन में प्रतिपल किए जाने वाले व्याहार और चिन्तन को कह सकते हैं। परन्तु कर्मकांड दिवस विशेष पर, विशेष वस्तुओं के साथ, विशेष भोजन और विशेष प्रकार का वेशधारण करके ही होता है।वैसे इन विशेषताओं के पीछे कोई दर्शन तत्व भी कभी रहता होगा। परन्तु कर्मकांड चीज ही ऐसी है कि दर्शन तो भुला दिया जाता है और साँप निकल जाने के बाद लकीर को पीटने की तरह हम कर्मकांड को ढोते रहते हैं। अब जिन कर्मकांडों को ढो रहे हैं। उनमें यह पर्यावरणीय कर्मकांड भी शामिल हैं। जिस गुरू नानक ने सूर्य को जल देने के कर्मकांड का खण्डन किया था उस गुरू नानक की धरती पर इन नए कर्मकांडों के बारे सवाल खड़े होने ही चाहिए।पिछले बीस-पचीस सालों में हमने तरह तरह के दिवस मनाने शुरू किए हैं। पर्यावरण, जल, पृथ्वी, वन, जलगाह, बीज, स्वास्थ्य, भोजन आदि न जाने कितने नए नए दिवस सरकारी, गैर-सरकारी तौर पर मनाए जाते हैं। हां , यहाँ हमें ध्यान रखना होगा कि इस 'गैर-सरकारी' और 'सामाजिक' में खासा अन्तर होता है। विडम्बना यह है कि जिन जिनपर हमने दिवस मनाने शुरू किए वे ही संसाधन या चीजें नष्ट होती गईं। न जल रहा, न वन, न पृथ्वी ही बची, न पर्यावरण, न पेड़ ही, फिर बीज, भोजन, स्वास्थ्य की तो बात ही क्या रहनी। हमारे पास दिवस ही बचे और उनका कर्मकाण्ड या कुछ लोगों के पास इनकी ग्रांट भी बचती होगी। बाकी ये संसाधन नष्ट हो गए हैं।पर्यावरण दिवस का आयोजन 1972 के बाद शुरू हुआ। 5 से 15 जून 1972 को स्वीडन की राजधानी स्टाकहोम मेें मानवी पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र का सम्मेलन हुआ। जिस में 113 देश शामिल हुए थे। इसी सम्मेलन की स्मृति बनाए रखने कि लिए 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस घोषित कर दिया गया। इस सम्मेलन की उपयोगिता उसके प्रभाव और उसमें पारित प्रस्तावों की दुर्दशा की तो अलग ही कहानी है। सवाल तो यह है कि पर्यावरण दिवस के इस दिन का हमारे से क्या रिश्ता? क्या 1972 के बाद लगातार पर्यावरण दिवस मना लेने से हमारा पर्यावरण ठीक हो रहा है? या फिर ठिकाने लगाया जा रहा है? यह विवेचना आप करिए। यही स्थिति विश्व पृथ्वी दिवस का है। एक अमरीकी सीनेटर गोलार्ड नेल्सन ने अप्रैल 22, 1970 को इसे सबसे पहले अमरीका मे मनाया था। 1990 तक यह सिर्फ अमरीका मे ही मनाया जाता रहा है। अमरीका से बाहर इसे पिछले एक दशक मे मनाना शुरू किया है। अब इससे हमारे समाज का क्या रिश्ता ? यह कैसे हमारे समाज को प्रेरित करेगा? यही स्थिति वाटर डे, वेटलेंड डे सरीखे तमाम कृत्रिम पर्वों की है। हमारे देश में तो प्रतिदिन प्रकिृति के प्रति पूजा का भाव रखने की लम्बी परम्परा रही है। जो पिछले सौ डेढ़ सौ सालों में मशीनकेंद्रित भौतिक विकास के प्रभाव से नष्ट हुई है। हमारे यहाँ तो सुबह उठकर धरती पर पैर रखने से पूर्व उससे क्षमा माँगने की संस्कृति रही है। हमारे पुरखों ने हमारा प्रकृति से रिश्ता भी सुनिश्चित किया था। मां और पुत्र का। इसलिए धरती माँ थी, नदी भी माँ। इसी लिए हमने धरती को रत्नगर्भा कहा और पुत्र की तरह उससे उन रत्नों को लिया भी। परन्तु मां पर जीत हासिल करके नहीं पुत्रवत उसका दोहन किया। इसलिए जब प्रकृति -पर्यावरण का संकट सिर पर आ गया हो तो समाज मे चेतना जगाने का काम कर्मकांडों से नहीं होगा।पंजाब को पर्यावरण दिवस मनाने की आवश्यकता है. पर सवाल है कि किस दिन को हम पर्यावरण दिवस कहेंगे? कौन सा वह दिन होगा जो पंजाब के लोगों को पर्यावरण दिवस मनाने की स्वयं स्फूर्ति व स्वप्रेरणा देगा? क्या गुरपरबों पर लगने वाली छबीलों के लिए श्रद्धापूर्वक लगने वाले गुरू के लंगरों के लिए क्या कोई किसी सरकारी संस्था से अनुदान या ग्रांट लेता है? यह समाज के संस्कारों से निकली परम्पराऐं हैं इनके लिए कोई जागरूकता अभियान चलाने की आवश्यकता नहीं। पंजाब को अपने पर्यावरण को दुरूस्त करने के लिए अपना रास्ता तलाशना होगा। उसे अपने आदर्श और दिवस गढऩे होंगे। हम अभी तक 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाने की जड़विहीन परम्परा निभाते आए हैं, परन्तु हममें से कितनों को ध्यान है कि पंजाब के लिए 4 जून का ज्यादा महत्व है। 4 जून भगत पूर्ण सिंह का जन्म दिवस होता है।वो महामानव जिसने पचास पचपन साल पहले पर्यावरण के सराकारों की बात की थी। जो पंजाब की धरती का सच्चा सपूत था। जो करूणा, मानवता, सेवा, सादगी, सच्चाई, सिमरन और दया का पुंज ही था। भगत पूर्ण सिंह ने अमृतसर में पिंगलवाड़े की स्थापना की -यह तो हर कोई जानता है। भगत जी के सेवा के चिंतन के फलस्वरूप पिंगलवाड़ा अनाथों, दीन निराश्रितों, कुष्ठ रोगियों और तमाम तरह के बेसहारा लोगों की सेवा का अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त केंद्र बना। उनका सेवाकार्य उन्हें देवता ही बना देता है। जितनी लगन से उन्हें सेवा की उतनी ही चिंता उन्हें पर्यावरण की भी थी। भगत पूर्ण सिंह ने 1950 के आसपास अमृतसर के स्वणमंदिर के बाहर बैठकर जो परचे बांटे उनमें वृक्ष पानी, मिट्टी और पर्यावरण जैसे मुद्दे अहम थे। वे अक्सर कहते थे कि 'मुझे पिंगलवाड़े से ज्यादा पर्यावरण की चिंता है'। फिर भगत जी का यह कहना मात्र कहना ही नहीं था। उन्होंने आजीवन उसे अपने व्यवहार में भी निभाया। उन्होंने कार या टेक्सी की जगह हमेशा बस या रेल की यात्रा की। वो गोबर को खजाना कहते थे और सड़क या कहीं भी पड़ा गोबर उठाकर उसे वहाँ डालते जहाँ वह खाद का काम करे। वो बार-बार रासायनिक खादों के प्रयोग के खिलाऊ लोगों को सचते करते थे। वे कहते थे 'धरती माँ को भूखा मत मारो' यानी जिस कुदरती खेती की बात हम आज करते हैं उसकी ओर भगत जी ने 50 साल पहले साफ -साफ ईशारा किया था। आज जब पर्यावरण का मुद्दा हमारे लिए जीवन और मरण का प्रश्न है। पंजाब के लोगों को उनका अपना पर्यावरण दिवस मनाना चाहिए 4 जून को पंजाब पर्यावरण दिवस के रूप में। यह पंजाब की विरासत, उसकी महान सेवा परम्परा का एक सुयोग्य सत्कार भी होगा। यह किसी अन्तरराष्ट्रीय कर्मकांड की खोखली नकल नहीं वरन् पंजाब की धरती से ऊपजा एक सार्थक पर्व होगा। इसमें किसी सरकारी ग्राट की आवश्यकता नहीं होगी। समाज अपने आप इसे पर्यावरण को समर्पित दिवस के रूप में प्रतिष्ठित कर लेगा।जिस पंजाब में आधुनिक विकास ने सबसे बड़ा विनाश रचा है उस पंजाब को पुन: अपनी जड़ों की ओर लौटाना होग। पंजाब को अपने पवन, पानी, मिट्टी की सम्भाल अपने चिंतन के अनुसार करनी होगी। पंजाब को चिरंजीवी पंजाब बनने का रास्ता खुद तय करना होगा। विकास, वहनीयता और टिकाऊपन का अपना आदर्श तलाशना होगा। ताकि पंजाब की आने वाली सन्तानों को बेआब पंजाब से बेआबाद न होना पड़े। आज आवश्यकता है कि पंजाब में विकास-अर्थशास्त्र-खेती एवं तकनीकों को पर्यावरण सुसंगत चिन्तन पर व्यापक लोक भागीदारी वाली एक पहल कीे।
गुरुवार, 3 जून 2010
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बाड़मेर: प्रेम की कथा अकथ है, अनिवर्चनीय है। फिर भी प्रेम कथा विविध प्रकार से कही जाती है, कही जाती थी और कही जाएगी। थार के इस रेगिस्तान में कई प्रेम गाथाओं ने जन्म लिया होगा, मगर बाघा-भारमली की प्रेम कथा राजस्थान के लोक साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। समाज और परम्पराओं के विपरित बाघा भारमली की प्रेम कथा बाड़मेर के कण-कण में समाई है। इस प्रेम कथा को रुठी रानी में अवश्य विस्तार मिला है। मगर, स्थानीय तौर पर यह प्रेम कथा साहित्यकारों द्वारा अपेक्षित हुई है। हालांकि, चारण कवियों ने अपने ग्रन्थों में इस प्रेम कथा का उल्लेख अवश्य किया है। कोटड़ा के किले से जो प्रेम कहानी निकली, वह बाघा-भारमली के नाम से अमर हुई।मारवाड़ के पश्चिमी अंचल बाड़मेर-जैसलमेर से सम्बन्धित यह प्रणय वृतान्त आज भी यहां की सांस्कृतिक परम्परा एवं लोक-मानस में जीवन्त है। इस प्रेमगाथा का नायक बाघजी राठौड़ बाड़मेर जिले के कोटड़ा ग्राम का था। उसका व्यक्तिव शूरवीरता तथा दानशीलता से विशेष रूप से सम्पन्न था। जैसलमेर के भाटियों के साथ उसके कुल का वैवाहिक संबंध होने के कारण वह उनका समधी (गनायत) लगता था।कथा की नायिका भारमली जैसलमेर के रावल लूणकरण की पुत्री उमादे की दासी थी। 1536 ई में उमा दे का जोधपुर के राव मालदेव (1531-62ई) से विवाह होने पर भारमली उमा दे के साथ ही जोधपुर आ गई। वह रुप-लावण्य तथा शारीरिक-सौष्ठव में अप्सराओं जैसी अद्वितीय थी।विवाहोपरान्त मधु-यामिनी के अवसर पर राव मालदेव को उमा दे रंगमहल में पधारने का अर्ज करने हेतु गई दासी भारमली के अप्रतिम सौंदर्य पर मुग्ध होकर मदमस्त राव जी रंगमहल में जाना बिसरा भारमली के यौवन में ही रम गये। इससे राव मालदेव और रानी उमा दे में ‘रार’ ठन गई, रानी रावजी से रुठ गई। यह रुठन-रार जीवनपर्यन्त रही, जिससे उमा दे ‘रुठी रानी’ के नाम से प्रसिद्व हुईं।राव मालदेव के भारमली में रत होकर रानी उमा दे के साथ हुए विश्वासघात से रुष्ट उसके पीहर वालों ने अपनी राजकुमारी का वैवाहिक जीवन निर्द्वन्द्व बनाने हेतु अपने योद्वा ‘गनायत’ बाघजी को भारमली का अपहरण करने के लिए उकसाया। भारमली के अनुपम रुप-यौवन से मोहित हो बाघजी उसका अपहरण कर कोटड़ा ले आया एवं उसके प्रति स्वंय को हार बैठा। भारमली भी उसके बल पौरुष हार्द्विक अनुसार के प्रति समर्पित हो गई, जिससे दोनों की प्रणय-वल्लरी प्रीति-रस से नित्य प्रति सिंचित होकर प्रफुल्ल और कुसुमित-सुरभित होने लगी। इस घटना से क्षुब्ध राव मालदेव द्वारा कविराज आसानन्द को बाघाजी को समझा-बुझा कर भारमली को लौटा लाने हेतु भेजा गया। आसानन्द के कोटड़ा पहुंचने पर बाघ जी तथा भारमली ने उनका इतना आदर-सत्कार किया कि वे अपने आगमन का उद्देश्य भूल वहीं रहने लगे। उसकी सेवा-सुश्रूषा एवं हार्दिक विनय-भाव से अभिभूत आसाजी का मन लौटने की बात सोचता ही नहीं था। उनके भाव विभोर चित्त से प्रेमी-युगल की हृदयकांक्षा कुछ इस प्रकार मुखरित हो उठी-‘जहं तरवर मोरिया, जहं सरवर तहं हंस।जहं बाघो तहं भारमली, जहं दारु तहं मंस।।’उसके बाद आसानन्द, बाघजी के पास ही रहे। इस प्रकार बाघ-भारमली का प्रेम वृतान्त प्रणय प्रवाह से आप्लायित होता रहा। बाघजी के निधन पर कवि ने अपना प्रेम तथा शोक ऐसे अभिव्यक्त किया-‘ठौड़ ठौड़ पग दौड़, करसां पेट ज कारणै।रात-दिवस राठौड़, बिसरसी नही बाघनै।।’
बुधवार, 2 जून 2010
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शाही रेल 'रॉयल राजस्थान ऑन व्हील्स'जैसलमेर नहीं जाएगी
बाड़मेर राजस्थान पर्यटन विकास निगम की शाही रेल 'रॉयल राजस्थान ऑन व्हील्स' धोरों की नगरी जैसलमेर नहीं जाएगी। निगम प्रशासन ने इसके स्थान पर नए पर्यटन स्थल वाराणसी और खजुराहो को टूर में शामिल किया है। भारतीय रेलवे ने इसे मंजूरी दे दी है। इस फैसले से भले ही निगम को पर्यटकों की संख्या तथा आय बढने से फायदा हो, लेकिन टूर एवं पर्यटन विशेषज्ञों का मानना है कि रॉयल राजस्थान के टूर में जैसलमेर जैसे स्थल को हटाने से वहां और प्रदेश के पर्यटन पर विपरीत असर पडेगा। इससे जैसलमेर के पर्यटन क्षेत्र का प्रचार-प्रसार कम होगा और पर्यटकों में कमी की सम्भावना है।
प्रतिस्पर्द्घा ने छीना जैसलमेर
एक ट्रेवल्स कम्पनी की शाही रेल के राजस्थान के दर्शनीय स्थलों को शामिल करने से निगम की दोनों शाही रेलों के सामने प्रतिस्पर्द्धा बढ गई। निजी शाही रेल से मुकाबले के लिए निगम ने रॉयल राजस्थान के टूर पैकेज में आध्यात्मिक और धार्मिक नगरी वाराणसी को शामिल किया।
दो नए स्थल जोडने से हटा जैसलमेर
भारत में आने वाले एशियाई व यूरोपीय देशों के पर्यटकों के बीच वाराणसी एवं खजुराहो आकर्षण का केन्द्र है। इन्हें दिखाने के लिए रॉयल राजस्थान दोनों स्थलों पर जाएंगी। दो नए स्थल जोडने से जैसलमेर को टूर पैकेज से हटाना पडा।
डॉ.मंजीत सिंह, सीएमडी आरटीडीसी
रेतीले धोरो, ऎतिहासिक स्थलों, संगीत व खान-पान के हिसाब से जैसलमेर अलग पहचान रखता है। शाही रेलों के जैसलमेर जाने से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्घि मिली है। रॉयल राजस्थान के टूर में से जैसलमेर को निकालने से वहां के पर्यटन पर विपरीत असर पडेगा।
संजय कौशिक, निदेशक राजपूताना हॉलिडे मेकर्स
पर्यटक धोरों में घूमने, ऊंट सवारी करने में अनूठा आनन्द आता है। ऎसे में रॉयल राजस्थान ऑन व्हील्स के जैसलमेर नहीं जाने से प्रदेश के पर्यटन को नुकसान होगा।
नीरज श्रीवास्तव, क्षेत्रीय प्रबंधक वैन टूर इंटरनेशनल
सफर छह से
अजमेर. अजमेर-जयपुर के बीच दोहरी लाइन पर रेल यातायात छह जून से
प्रारंभ हो जाएगा। इस मार्ग पर दूसरी रेल लाइन बिछाने का काम पूरा हो चुका है। दूसरी लाइन उपलब्ध होने से अब इस मार्ग पर रेल यातायात एकतरफा चलेगा। नई रेल लाइन पर अजमेर से मदार के बीच कुछ काम व सिग्नल प्रणाली में फेरबदल के लिए इंजीनियरिंग नॉन-इंटरलॉकिंग ब्लॉक 5 जून को लिया जाएगा। इस दौरान अजमेर-जयपुर के बीच रेल यातायात प्रभावित रहेगा।
यहां भी दोहरी लाइन
रेल प्रशासन की अजमेर से नई दिल्ली के बीच दोहरी रेल लाइन बिछाकर यातायात वन-वे करने की योजना है। अजमेर-जयपुर के बीच डबल ट्रेक का काम पूरा होने के बाद अब जयपुर-नई दिल्ली के बीच दूसरी रेल लाइन
बिछाने का काम शुरू किया जाएगा।
सोमवार, 31 मई 2010
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रविवार, 30 मई 2010
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बाड़मेर: घास के मैदान व आश्रय स्थल नष्ट होने से सीमा पार से थार में पहुंचने वाली तिलोर चिडि़या की संख्या अब कम होने लगी है। कोयम्बटूर स्थित ‘सालिम अली इंस्टीट्यूट ऑफ ऑर्निथोलॉजी एंड नेचुरल हिस्ट्री’ द्वारा भारतीय मरूस्थल पर किए गए शोध के मुताबिक थार में तिलोर की संख्या लगातार कम हो रही है। तिलोर घास के मैदानों में प्रजनन करते हैं।पाकिस्तान की सीमा से लगे राजस्थान के बाड़मेर-जैसलमेर जिले और जोधपुर जिले के कुछ इलाकों में मवेशियों की संख्या बढ़ने और चारागाह कम होने से सीमा पार से आने वाले तिलोर अब थार से मुंह मोड़ने लगे हैं।बाड़मेरमें भी नहीं दिखते‘भारतीय प्राणी सर्वेक्षण’ के पक्षी विशेषज्ञ डॉ. संजीव कुमार कहते हैं कि पहले जोधपुर के आस-पास के इलाकों तिलोर अक्सर दिखाई दे जाते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं है। कभी-कभार दूरस्थ ग्रामीण इलाकों में जरूर कुछ तिलोर देखे जाते हैं। कुरजां की संख्या बढ़ी‘अंतरराष्ट्रीय क्रेंस फाउंडेशन’ के शोध के मुताबिक साइबेरिया से दक्षिणी पूर्वी एशिया में आने वाले क्रेन्स अफगानिस्तान ‘फ्लाई वे’ के बाद गायब हो जाते थे। वैज्ञानिकों ने इसकी जांच की, तो पता लगा कि अफगानिस्तान के आकाश के ऊपर से गुजरते इन पक्षियों को मनोरंजन और शिकार के लिए मार गिराया जाता था, लेकिन इसमें अब कमी आई है। पक्षी विशेषज्ञ डॉ. अनिल कुमार छंगानी के अनुसार मारवाड़ के कुछ इलाकों में पानी व भोजन की उपलब्धता में कमी के कारण भी उन इलाकों में आने वाली कुरजां अब जोधपुर जिले के खींचन की और शिफ्ट हो गई। खींचन में कुरजां के लिए भोजन व पानी की पर्याप्त उपलब्धता है। कुल मिलाकर, पूरे राजस्थान में कुरजां की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है।
शनिवार, 29 मई 2010
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बाड़मेर: पाकिस्तान की सीमा से लगे राजस्थान के बाड़मेर और जैसलमेर जिले में स्थित राष्ट्रीय मरु उद्यान में राज्य पक्षी ‘दी ग्रेट इण्डियन बर्स्टड गोडावण’ की आश्रय स्थली सुदासरी गांव को वन विभाग और पर्यटन विभाग पर्यटन स्थल के रुप में विकसित करेंगे। इसके लिए दोनों विभागों का साझा प्रस्ताव राज्य सरकार को भिजवाया गया हैं, जिसके इसी साल मंजुर होने की सम्भावना है। राज्य पक्षी गोडावण के संरक्षण के साथ साथ सुदासरी में हस्त कला को भी बढ़ावा दिया जाएगा।क्षेत्रीय वन अधिकारी (वन्य जीव) मोहन लाल खत्री ने बताया कि राष्ट्रीय मरु उद्यान का सुदासरी गांव गोडावण की प्रमुख आश्रय स्थली है, वहीं बरना गांव में भी गोडावणों की उपस्थिति दर्ज की जाती रही है। विभाग ने पर्यटन विभाग के साथ मिलकर गोडावण के संरक्षण के साथ-साथ इन गांवों को पर्यटन से जोड़ने के उदेश्य से बीस करोड़ रुपए की योजना का प्रस्ताव राज्य सरकार को भिजवाया गया है, जिसके शीघ्र मंजुर होने की उम्मीद है। उन्होंने बताया कि सुदासरी और बरना गांवों में गत साल 24 गोडावणों की उपस्थिति दर्ज की गई थी। इस साल सुदासरी में 32 गोडावण देखे गए हैं।खत्री ने बताया कि अगले दो-चार दिनों में राष्ट्रीय मरु उद्यान में वन्य जीवों की गणना आरम्भ हो रही है। गणना के बाद गोडावणों की वास्तविक संख्या सामने आएगी। उन्होंने बताया कि इस योजना के तहत सुदासरी में दो सामुदायिक भवनों का निर्माण कराया जाएगा, जिसमें स्थानीय लोगों को रोजगार उपल्बध कराते हुए हस्तकला केन्द्र खोला जाएगा और हस्तकला की वस्तुएं तैयार कराई जाएंगी। इसमें कांच कशीदाकारी, आरी तारी, हस्तशिल्प से निर्मित जूतियां, आदि तैयार करवा कर बिक्री के लिए रखी जाएंगी। खत्री के अनुसार, बरना में पर्यटन विभाग के साथ मिलकर रिसॉर्ट खोलने की योजना भी इस प्रस्ताव में शामिल है। थार मरुस्थल के बाड़मेर-जैसलमेर जिलों के 3162 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले राष्ट्रीय मरु उद्यान में लुप्त हो रहे गोडावणों के सरक्षंण के लिए वन विभाग ने गम्भीरता से कवायद शुरु कर दी है। विश्व भर में गोडावण की एकमात्र आश्रय स्थली सुदासरी-बरना में तेल दोहन के साथ साथ मानवीय गतिविधियों के बढ़ने से गोडावणों की संख्या में निरन्तर कमी दर्ज की जाती रही है। विभागीय सुत्रों के अनुसार, गत 15 सालों में मरु उद्यान क्षेत्र में 2005 में सर्वाधिक 110 गोडावणों की उपस्थिति दर्ज की गई थी, वहीं सबसे कम 1995 में 39 गोडावण थे। अब अकेले सुदासरी गांव में 32 गोडावण हैं। क्षेत्र में मानवीय गतिविधियां बढ जाने से गोडावणों के भोजन का प्रमुख आधार लगभग समाप्त हो जाना उनकी की घटती संख्या का प्रमुख कारण रहा है। विभाग द्वारा गोडावण के आश्रय स्थली के आसपास के 9 गांवों के 389 परिवारों को अन्यत्र बसाने की योजना को अंतिम रुप दिया गया है। मरु उद्यान के आसपास के सम, सुदासरी, फुलियां, म्याजलार, खुहड़ी व सत्तों आदि क्षेत्रों में चार दशक पूर्व तक गोडावणों की संख्या हजारों में थी, जो सिमट कर दो अंकों में रह गई है। गोडावणों की घटती संख्या के चलते विभाग हरकत में आया है।
'मरीचिका' मौत का सबब बन रही है। प्यास
बाडमेर। पचास डिग्री के आसपास तापमान में सिक रहे रेगिस्तान के ज्यादातर तालाब और नाडियां सूख चुके हैं। है। ऎसे में वन्यजीवों की जान पर बन आई है। रेतीले इलाके में बहुतायत में पाए जाने वाले मृगों के लिए 'मरीचिका' मौत का सबब बन रही है। प्यास के मारे वे तडप-तडप कर दम तोड रहे हैं। थार में राज्य पशु चिंकारा आजादी से कुचालें भरता है। बाडमेर ही नहीं, जैसलमेर व जोधपुर जिले के भी कई इलाकों में हरिण का शिकार सामाजिक तौर पर वर्जित होने से इनकी खासी संख्या है। लेकिन इस बार की भीषण गर्मी इनके लिए अभिशाप बन गई। जिले के चवा गांव में ही एक पखवाडे में सौ से ज्यादा हरिण मर गए। अभाणियों का सर क्षेत्र के आसपास तीस से ज्यादा हरिण मरे पडे हैं। डाबली सरा, केरली नाडी सहित अन्य जगहों में ऎसे ही हालात हैं। भुरटिया, शिव, धोरीमन्ना सहित अन्य क्षेत्रों में भी हरिण मरे हैं।चिंकार राज्य पशु होने के साथ 'शेड्यूल वन' का प्राणी है। ऎसे किसी पशु की मृत्यु होने के बावजूद वन विभाग अभी तक बेखबर है। वन विभाग केवल वन्य क्षेत्र में विचरण करने वाले पशुओं के लिए ही पानी की व्यवस्था कर रहा है। इसके लिए वहां बनी खेलियों और हौदियों में पानी डाला जाता है। अन्य क्षेत्र में कोई व्यवस्था नहीं है। गर्मी का कहर इंसानों के साथ-साथ अब बेजुबानों पर होने लगा है। क्षेत्र में गर्मी से करीब तीन सौ चमगादडों की मौत हो गई। कई चमगादडों के शव जमीन पर पडे थे तो कई पेडों पर मृत लटके हुए पाए गए। चिकित्सकों ने पोस्टमार्टम के आधार पर चमगादडों की मौत का कारण तापघात माना। उन्होंने किसी तरह की बीमारी से इनके मरने से इनकार किया है। बाग में चमगादडों के मरने का सिलसिला कई दिनों से चल रहा है।हमें इसकी जानकारी नहीं है। ऎसा हुआ है तो जांच करवाई जाएगी। पोस्टमार्टम करवाया जाएगा। यह गंभीर मामला है।प्रियरंजन, उप वन संरक्षक
शुक्रवार, 28 मई 2010
न्यूज़ track

रविवार, 9 मई 2010
Dekh Mausam Kah raha hai duniya meri jeb mein lata mangeshkar neetu sing...
शनिवार, 8 मई 2010
BARMER NEWS TRACK
बाडमेर। शिव थाना क्षेत्र के मुंगेरिया फांटा पर शनिवार को पुलिस ने बछडों से भरे दो ट्रक जब्त कर पांच जनों को गिरफ्तार किया। आरोपियों के खिलाफ क्षमता से अघिक गोवंश ट्रकों में भरने एवं अवैध परिवहन करने का मामला दर्ज किया गया।
शिव थानाघिकारी भंवरदान रतनू ने बताया कि पुलिस को सूचना मिली कि जैसलमेर की ओर से बछडों से भरे ट्रक मुंगेरिया गांव की तरफ आ रहे हैं। इस पर मंगेरिया फांटे पर नाकाबंदी की गई।
नाकाबंदी के दौरान दो ट्रक आए, जिनकी तलाशी ली गई। तलाशी के दौरान एक ट्रक में बारह व दूसरे ट्रक में तेरह बछडे मिले। बछडों का परिवहन करने वाले गोपाराम, राजूराम निवासी कुडी, रहीमखां निवासी निम्बासर, भंवरलाल निवासी मालाणियों की ढाणी व अचारखां निवासी निम्बासर के पास बछडों के परिवहन से संबंघित लाइसेंस नहीं मिला। इन्होंने एक पुराना अवघि पार लाइसेंस दिखाया। इस पर इन पांचों को गिरफ्तार कर बछडों से भरे ट्रक जब्त कर गूंगा चौकी लाए गए। यहां पर बछडों का मेडिकल करवाने के बाद पथमेडा गोशाला सांचौर भिजवाया गया। सभी आरोपियों के खिलाफ शिव थाने में मामला दर्ज किया गया।
गूंगा में एकत्रित हुए लोग
बछडों के अवैध परिवहन की सूचना मिलते ही गूंगा में लोग एकत्रित हो गए, लेकिन पुलिस की संतोषजनक कार्यवाही के चलते दस दिन पूर्व हुए चक्काजाम जैसी किसी घटना की पुनरावृति नहीं हुई। शिव के पूर्व विधायक डॉ. जालमसिंह रावलोत ने पुलिस व प्रशासन से अनुरोध किया कि गोवंश की तस्करी में शामिल लोगों को बेनकाब किया जाए।
फर्जी एनओसी देने का आरोपी इंजीनियर गिरफ्तार
बालोतरा। नगरपालिका की फर्जी एनओसी जारी करने के मामले में पुलिस ने एक अभियंता को गिरफ्तार किया है। नक्शे व एस्टीमेट बनाने के लिए नगरपालिका से अधिकृत उक्त आरोपी पर शहर के समदडी रोड निवासी एक व्यक्ति को निर्माण की इजाजत के लिए रूपए लेकर फर्जी एनओसी थमाने का आरोप है। इसको लेकर प्रार्थी अशोकसिंह पुत्र मगसिंह ने आरोपी के खिलाफ धोखाधडी का मामला दर्ज कराया है वही नगरपालिका बालोतरा ने भी फर्जीवाडा करने की रपट दर्ज करवाई है। पुलिस ने आरोपी महेन्द्र रमण पुत्र गंगाराम निवासी नेहरू कॉलोनी को गिरफ्तार कर गुरूवार को न्यायालय में पेश किया जहां से उसे न्यायिक अभिरक्षा में भेजा गया।
थानाघिकारी भंवरलाल देवासी ने बताया कि समदडी रोड निवासी अशोकसिंह बैंक से मकान निर्माण के लिए ऋण लेना चाहता था। इसके लिए उसने निर्माण सम्बंधी एनओसी नगरपालिका से प्राप्त करने के लिए इन्जीनियर महेन्द्र रमण से सम्पर्क किया। उसने तीन हजार तीन सौ रूपए लेकर एनओसी दी, जो नगरपालिका से जारी होना बताई। अशोकसिंह द्वारा इस बिनाय पर निर्माण कार्य शुरू करवाया गया। मामले में मोड उस समय आया जब पडौसी ने एतराज उठाया।
उसकी शिकायत पर नगरपालिका के कर्मचारियों ने मौके पर पहुुंचकर जानकारी ली। एनओसी पर लगे क्रमांक नम्बर की जांच व नगरपालिका रिकार्ड से मिलान करने पर यह फर्जी पाई गई। जबकि इस पर लगी नगरपालिका की सील भी असली होना बताया जा रहा है। उक्त मामले में पुलिस ने रमण को गिरफ्तार कर पूछताछ के बाद न्यायालय में पेश किया, जहां से उसे जेल भेजा गया।
बैठक में भी हुआ था हंगामा
नगरपालिका की गत बैठक में फर्जी एनओसी जारी करने के मामले को लेकर पार्षदों ने काफी हंगामा किया था। पार्षदों ने इस प्रकरण को गम्भीर बताते हुए तत्काल जांच व दोषियों के खिलाफ कार्यवाही की मांग भी उठाई थी।
प्रकरण की गहनता से पडताल की जा रही है। आरोपी से पूछताछ की गई है। एनओसी पर नगरपालिका की सील के मामले में कर्मचारियों की भूमिका की जांच भी की जा रही है।
-मनीष देव, अनुसंधान अघिकारी, बालोतरा
विवाहिता को दहेज के लिए प्रताडित किया
समदडी। दहेज के लिए एक विवाहिता को प्रताडित करने एवं घर बदर करने का मामला समदडी पुलिस थाने में दर्ज हुआ है। पुलिस ने बताया कि प्रियंका पत्नी इन्द्रमल निवासी समदडी ने पेश रिपोर्ट में बताया कि गत वष्ाü 27 फरवरी को उसकी शादी सामाजिक रीति रिवाज के अनुसार हुई। उस समय उसके पिता ने अपनी हैसियत के अनुसार दहेज देकर विदा किया ।
कुछ दिनों बाद पति सहित नणद, सासु, ससुर, जेठ, जेठानी उसे दहेज कम लाने एवं पीहर से और लाने की मांग करते हुए ताने देने लगे। बार-बार उसके साथ में गाली गलौच करते हुए मानसिक यातनाएं भी दी गई। सिवाना ससुराल रहने के बाद वह कुछ समय तक सूरत रही जहां उसका पति व्यवसाय करता है। वहां पर भी उसके साथ में ऎसा ही व्यवहार किया गया। गत चार अप्रेल को ससुराल वाले उसे समदडी स्थित पीहर में छोडकर चले गए। पुलिस ने मामला दर्ज कर जांच प्रारम्भ की।
मोटरसाइकिल चुराने के आरोपी गिरफ्तार
बाडमेर। शहर कोतवाली पुलिस ने मोटरसाइकिल चोरी के आरोप में तीन जनों को गिरफ्तार किया है। इनकी गिरफ्तारी से चोरियों की कई वारदातों का राज खुलने की संभावना है। पुलिस ने बताया कि पिछले एक माह से बाडमेर शहर सहित जिले भर में मोटरसाइकिल चोरी की वारदातें निरंतर हो रही थी। इस पर पुलिस अधीक्षक संतोष चालके ने शहर कोतवाल बुधाराम विश्नोई के नेतृत्व में एक विशेष टीम का गठन किया।
इस टीम ने मुखबिर की इतला पर श्याम व हरीश निवासी नगर, सकूखां निवासी गुडामालानी को गिरफ्तार किया। प्रारंभिक पूछताछ में तीनों आरोपियों ने बाडमेर शहर, समदडी, बालोतरा, गुडामालानी में चोरी की वारदातों को अंजाम देना स्वीकार किया है। इन्होंने बताया कि वे मोटरसाइकिलों की चोरी के बाद प्रत्येक मोटरसाइकिल को पांच से दस हजार रूपए में बेच देते। शहर कोतवाल ने बताया कि इनके अन्य साथियों व चोरी की मोटरसाइकिलों की खरीद करने वालों की तलाश की जा रही है।
एक दर्जन मोटरसाइकिलें बरामद
पुलिस ने इन चोरों के कब्जे से अथवा इनकी निशानदेही पर करीब एक दर्जन मोटरसाइकिलें बरामद कर ली है। हालांकि अघिकृत तौर पर पुलिस अभी तक बरामदगी नहीं बता रही है।
सफेद आंधी’ का साया
ckMesj पाकिस्तान के सिंध इलाके से आई सफेद आंधी ने ‘’kfuवार रात पश्चिमी राजस्थान के रेगिस्तानी क्षेत्र को अपने आगोश में ले लिया। मौसम वैज्ञानिकों के अनुसार सिंध में तीस से चालीस किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से आई आंधी से रेत के बारीक कणों ने पश्चिमी हवाओं के साथ मारवाड़ की ओर रुख करते हुए धीरे-धीरे पूरे संभाग को मानो सफेद चादर से ढक दिया। रेत के ये सफेद कण jfoवार दोपहर बाद जाकर नीचे उतरने लगे और आकाश कुछ साफ दिखाई देने लगा।
काजरी के हैड ऑफ डिवीजन डॉ. अमलकर ने बताया कि शहर के अलावा संभाग में छाई आंधी में इस बार रेगिस्तान की पीली मिट्टी नहीं, बल्कि सिंध से आई सफेद मिट्टी की आंधी है। सिंध नदी और वहां के इलाकों में सफेद रेत के बारीक कण पश्चिमी हवाओं के साथ यहां आए। सफेद रेत के कण इतने बारीक होते हैं कि हल्की हवाओं के झौंके के साथ आगे बढ़ते रहते हैं। हवा पूरी तरह थमने के बाद ये कण वहीं ठहर गए और फिर नीचे जमीन पर इसकी परत सी छा गई। गए। हवा का रुख तेज होता तो यह पश्चिमी क्षेत्र से भी आगे निकल जाते। इस आंधी से मानसून पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
केरल तक पहुंचा मानसून : गत वर्ष अकाल के बाद अब तक की गति को देखते हुए इस बार अच्छी बारिश होने की संभावना है। काजरी के वैज्ञानिकों के अनुसार मानूसन केरल पहुंच चुका है। वहां बारिश हो रही है। पश्चिमी राजस्थान में पूर्व की ओर से आने-वाले मानसून की स्थिति फिलहाल अच्छी बनी हुई है, विपरीत तेज हवाएं नहीं चली तो जल्द ही मानसून पश्चिमी राजस्थान में प्रवेश कर जाएगा।
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शुक्रवार, 7 मई 2010
शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010
BARMER NEWS TRACK
BARMER
The last time I saw Jaswant Singh was in a small study at his New Delhi home. He sat behind a pile of books listening to Vivaldi. His eyes were of a discoverer thrashing through a jungle of overgrown foliage covered in fog. Before him lay his typed manuscript covered with handwritten corrections in red. Two years into his voyage, the author of Jinnah: India-Partition Independence had finally arrived at his destination. He was in Islamabad last week to describe that journey.
I missed interviewing Jaswant Singh. The Indian High Commission came between us. Many of his media interviews got cancelled because of commitments nobody had any control over. The launch of his book started an hour late because he was suddenly called to the presidency. The throng waiting to hear him was told to go get another cup of tea. When the launch was over, all rushed towards him. Then there were television crews shoving their cameras in his face asking him repeated questions. He looked exhausted. Finally his son came to his rescue.
“Why do you cover your head?” I ask Chitra Kumari, Jaswant’s daughter-in-law. She has a green chiffon sari on. “It’s our custom,” says the pleasant looking mother of two. “She began covering her head after marriage,” adds Manvendra Singh, Jaswant’s son. He wears a black Nehru jacket with a dapper red silk handkerchief dangling out. “How come the party that expelled your father because he praised Jinnah in his book has you in the central executive committee?” I ask Manvendra. He nods and with a smile (rather sweet) says, “I stopped talking about it to the media the day my father left BJP.”
I persist by quoting Jaswant who once told an interviewer: “The political parties that exist in the country are really functioning like private limited companies or family concerns... congress of course is purely and unashamedly a family concern and they don't make any bones about it, but the same problems seem to have afflicted my former political party. It has become sycophantic, full of time-servers. These are not the ideals with which we began. The purpose of the party was the service of the nation.”
Earlier, Jaswant mentions his spat with L.K Advani over the latter’s “adverse remarks on the Quaid” plus the “BJP’s funding of RSS,” the militant Hindu nationalist party and the “Ayodhya incident.” He tells us that he “boycotted the BJP’s meetings whenever its ally, the Shiv Sena” headed by the right-wing extremist Bal Thackeray were present. “I’m eccentric and a maverick. Had I stayed on in the army, I would have been court martialled!”
However what impresses me is Jaswant’s son and his daughter-in-law’s low key presence. They don’t go around throwing their weight at the book launch as sons and daughters of our (rotten)VIPs do here. Humble, modest and subtly sophisticated is how the couple comes across.
During the Q and A session, Jaswant repeats his soft-spoken conviction: “The real renaissance of Islam would have taken place in undivided India if there had not been a partition.” He does not go into much detail, but here is one lead for our religious scholars/academics to follow and prove or disprove Jaswant’s contention. While such a topic can never lock in a conclusion due to the pluralistic viewpoints Hindus and Muslims hold on this sensitive subject, it does not hurt to open the forum. A Pakistani-American once said to me that Islam in its pure and unadulterated sense will descend on Pakistan one day. “It will come from outside; not from within Pakistan.”
Jaswant holds tight to his opinion on the futility of partition. “I don’t accept partition, but at the same time don’t reject it either. I don’t question the legitimacy of Pakistan, but I must know what caused partition.” He says that Muslims are not a separate nation. “What about Muslims living in India? They are an integral part of India.”
But he moves on swiftly to say, “We’re fated for peace. I’m committed to Hindu-Muslim unity as peace between India and Pakistan. Partition was the most traumatic event of the 20th century. As a member of parliament since 1952, I’ve been seized with this issue and have now written about it. If we don’t study our history, we’ll become the victims of revenge of geography. Was the partition of India fated or were we people sedated?”
Throwing a wager at the audience he asks: “How many members of Pakistan parliament have ever read or written about partition?” There was no answer from the audience.
“Were we fated to be separated?” he continues. He then takes the audience through the arc of history to arrive at his conclusion. “You don’t condemn a subcontinent because you are tired,” says Jaswant of the indecent haste in which the British quit India. “Nehru too was in a hurry because he too was tired. Do tired men carve out nations? Jinnah wasn’t impatient even though he knew his time on earth was ending. United India was broken hastily… great events are often accompanied by small events that leave behind issues that the coming generations have to pay for.”
We sit in pin drop silence listening to his powerful thesis delivered in an authoritatively mellifluous tone loud enough to thunder across the hall of over 1,000 initiated. He tells us how the young Nehru, “born with a silver spoon” was groomed by his father to enter politics, while Jinnah was a self-made man, who until he became a successful lawyer, would walk to his place of work and live in a shanty hotel in Bombay. Jinnah would say: “There’s a place at the top always; but you have to climb the stairs. There’s no lift”!
Jaswant’s book carries the vituperative comments made by Nehru to Gandhi on Jinnah. The author explains that Nehru developed a deep dislike for Jinnah. This is the raison d'etre for partition (read the book!). He makes another admission: “I’m deeply prejudiced against Mountbatten. He was a self-seeking and self-opinionated viceroy more interested in his genealogy than peaceful transfer of power.”
The man who wants to be remembered as an “ordinary human being; an Indian and a friend of Pakistan” leaves us with his final thought: “While partition can’t be undone but its consequence can be undone”!
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Gopala Gopala Shyam Gopala
जसवंत की भाजपा में वापसी तय, कभी भी हो सकती है घोषणा
बाड़मेर: लगभग 11 माह पूर्व भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से निष्कासित पूर्व वित मंत्री और वरिष्ठ नेता जसवंत सिंह की भाजपा में सशर्त वापसी तय हो गई है, महज औपचारिक घोषणा होनी बाकी है। उनकी वापसी की घोषणा कभी भी हो सकती है। भाजपा से जुड़े उच्च पदस्थ सुत्रों ने बताया कि पिछले लम्बे समय से भाजपा जसवंत सिंह को वापस लेने के फिराक में थी। इस सम्बन्ध में भाजपा के कई वरिष्ठ नेताओं की उनके साथ मुलाकातें हो चुकी हैं। मगर, जसवंत सिंह अंतिम निर्णय पाकिस्तान यात्रा के बाद ही लेना चाहते थे।
हाल ही में जसवंत सिंह सपरिवार पाकिस्तान की यात्रा कर दिल्ली लौटे हैं। पाकिस्तान में जसवंत सिंह को जबरदस्त समर्थन मिला। पाक में जसवंत ने जिन्ना पर लिखी अपनी पुस्तक ‘जिन्ना: इंडिया-पार्टीशन-इंडिपेंडेंस’ का लोकार्पण किया था। भारत वापसी के बाद से ही भाजपा के वरिष्ठ नेता लगातार जसवंत सिंह के सम्पर्क में थे। जसवंत नें ससम्मान वापसी की शर्त रखी। भाजपा ने जसवंत सिंह की शर्तों पर सहमति देते हुए जसवंत का पार्टी में पुराना रूतबा कायम रखने के प्रति आश्वस्त किया है।
सुत्रों के अनुसार, जसवंत की वापसी की औपचारिक घोषणा होनी बाकी है, जो कभी भी हो सकती है। भाजपा अध्यक्ष नितिन गड़करी स्वयं जसवंत के वापसी की घोषणा करेंगे। गौरतलब है कि भाजपा ने जसवंत सिंह को ‘जिन्ना: इंडिया-पार्टीशन-इंडिपेंडेंस’ में जिन्ना की तारीफ करने पर निष्कासित कर दिया था।
गुरुवार, 29 अप्रैल 2010
बुधवार, 28 अप्रैल 2010
BARMER NEWS TRACK
बाडमेर: आधुनिक बनने की होड़ में शायद ही कोई ऐसा चेहरा बचा हो, जो सौंदर्य प्रसाधनों का उपयोग न करता हो। चेहरे को तमाम सौंदर्य प्रसाधनों के जरिए निखार कर आधुनिक बालाएं अल्प समय की सुंदरता पाकर निहाल हो उठती हैं और इसी अल्प समय की सुंदरता के बलबूते सौंदर्य प्रतियोगिताओं के ताज पहन रही हैं। मगर, राजस्थान के बाड़मेर जिले की अत्यन्त खूबसूरत ग्रामीण बालाओं की नैसर्गिक सुंदरता के आगे मेकअप के बूते हासिल किया गया उधार का हुस्न फीका लगता हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों में नैसर्गिक सौंदर्य यहां की बालाओं की विशेष पहचान है। शादी-ब्याह के अवसरों पर वे ’कॉस्मेटिक’ के बजाय कुदरती चीजों का इस्तेमाल करती हैं। मुल्तानी मिट्टी (स्थानीय भाषा में जिसे मेट कहा जाता हैं) व चूरी भाटे से ही मेकअप किया जाता है। सैंकडो प्रकार के देसी-विदेशी श्रृंगार प्रसाधनों से सजी-धजी शहरी बालाओं का सौंदर्य ग्रामीण परिवेश में पली-बढ़ी बालाओं के प्राकृतिक चीजों से किए गए सौंदर्य के आगे फीका लगता है। हस्तनिर्मित एवं फुटपाथ पर गौर बंजारनो से खरीद गए श्रृंगार प्रसाधनों के उपयोग से नुमाया हुई खूबसूरती का कोई साईड इफेक्ट नही है और न ही इसके उतर जाने पर सौंदर्य धुंधला पडता हैं।
बाड़मेर की विश्वप्रसिद्ध मुल्तानी मिट्टी एक बेहतरीन प्राकृतिक सौंदर्य प्रसाधन है। मुल्तानी मिट्टी का चूर अन्तरराष्ट्रीय बाजारों की बडी-बडी दुकानों में महंगी कॉस्मेटिक सामग्री के रूप में मिलता है। यह मिट्टी त्वचा को स्वच्छ व गोरी बनाने में चमत्कारी कार्य करती है। मुल्तानी मिट्टी की ‘मेट बाथ’ तेजी से लोकप्रिय हो रही है। बाड़मेर में निर्यात होकर ‘बेन्टोनाईट’ मुल्तानी मिट्टी शहरों में भड़कीले पैकेटों में पैक होकर खुशबूदार टेलकम पाउडर के रूप में बिकती है। मगर, आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में बिना चंदन, मोगरे, गुलाब की महक के मनपसंद ‘मेटबाथ’ व चूरी भाटे का प्रयोग कर श्रृंगार करने वाली महिलाएं बिजलियां गिराने का माद्दा रखती हैं।
बाडमेर जिले में लगभग 6 खानें ‘बेन्टोनाईट’ की हैं। मगर, सरकारी नीतियों में आई विसंगतियों के कारण खानों का संचालन जोखिमभरा हो गया है। खान मालिक भरत दवे बताते हैं कि खनिज विभाग द्वारा सीमित गहराई तक ही बेंटोनाईट के खनन की स्वीकृति देने के कारण पूरा खनन नहीं हो पाता, बीच में ही खदान बन्द करनी पडती हैं, जिसके कारण खान संचालकों को घाटा उठाना पडता है। देश भर में बेंटोनाईट की जबरदस्त मांग के बावजूद पर्याप्त आपूर्ति नही हो पा रही है।
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barmer news track

Without AC Give the coolness, the Sindh Thar style Anute Zoanpa
Barmer, Rajasthan,
: vast desert land - located in difficult circumstances at the Barmer district of Rajasthan dreams are no less beautiful paintings. Tharwasioan's tough but colorful lifestyle affects everyone. Dhoroan made between desert - like attract like Zoanpa everyone.
Made by villagers along the Pakistani border region where the desert of Sindh style Anute Zoanpa colorful lifestyle show, the Thar Desert is the tree to heat the retort Zoanpa These indigenous, in the 48-50 degree heat without the cooler air Kanadishne and provide a feeling of coldness. Rajasthani desert area and go in any direction, Zoanpo different - different kinds Zonkiyon hundreds of eyes are relaxed. For many, the riot of the village Zoanpo meet the diversified, some village Zoanpere, Perve, Ghdaal, filters, etc. forms niches in texture, Mandai, Rupokanne and comfort - features beautiful nature will be saved.
Murr Zoanpo village in the wall, vertical, ash or cement is used. Zoanpoan walls of the upper part of the work area available in dendritic Mandai - plants, grass and bushes are appropriate. Chan or Zoanpa beautiful as the inner portion of the roof is used to Sarkandoan. The Mandan are taken care of in the traditional craft and ritual. Zoanpo conventional flooring is featured Lipa dung. Zoanpo Basaoo the farm is at high altitude location or Dhore. Before fixing the air space, water and guarding fields is taken into account. Zoanpa approach of building full of air time are considered. Face to face Moake windows are placed on the walls, which sustained wind comes.
Sindh border area became Zoanpa style are high. Thar region of Sindh Zoanpo Zoanpo like to make them appealing to the inner portion of Gehru Hanto Pndo and the color is. On his dry, and empty niches and places around Mokhoan folk culture tend Maandne Maande. Maandne Bhuarrangee, and bright colors of these occur. Pndo and wrist watch is made of the effect of their riot. These dendritic Maandono folk style - plants, vegetation, sun, Chanu, Bell - Bute; animal - birds, folk instruments, folk deities are adorable illustration. Somewhere - somewhere Pndo colors instead of the white surface of the Gehru Chitaram are sculpted.
The courtyard is decorated Zoanpa little. Mite and smooth plaster of cow dung in the courtyard of the skirting and between Gehru and Pndo - Maand Maandne between tax court is made attractive. Zoanpa Hotleo elegance of a five-star general homes have become. Domestic - foreign tourists, especially Zoanpoan demand. Charrayo Zopoan is also fond of public officials. Each officer's bungalow usually two - three Zoanpa must seem.
मंगलवार, 27 अप्रैल 2010
BARMER NEWS TRACK
बाड़मेर, राजस्थान,
: विशाल रेगिस्तान भूमि - राजस्थान सपनों के बाड़मेर जिले में कठिन परिस्थितियों में स्थित कम नहीं सुंदर हैं चित्रों. Tharwasioan है कठिन है लेकिन रंगीन जीवन शैली सबको प्रभावित करता है. Dhoroan रेगिस्तान के बीच बनाया - Zoanpa हर किसी की तरह की तरह आकर्षित.
पाकिस्तानी सीमा क्षेत्र जहां सिंध शैली Anute Zoanpa रंगीन जीवन शैली को दिखाने के रेगिस्तान थार रेगिस्तान को मुंहतोड़ जवाब ये स्वदेशी Zoanpa गर्मी कूलर हवा Kanadishne बिना वृक्ष 48-50 डिग्री गर्मी में है और एक भावना प्रदान करने के साथ ग्रामीणों द्वारा बनाया गया शीतलता की. राजस्थानी रेगिस्तान क्षेत्र और किसी भी दिशा में जाना है, Zoanpo अलग - अलग प्रकार की आँखों के सैकड़ों Zonkiyon आराम कर रहे हैं. कई के लिए, Zoanpo गांव के दंगा विविध, बनावट में कुछ गांव Zoanpere, Perve, Ghdaal, फिल्टर, आदि niches रूपों से मिलते हैं, मण्डी, Rupokanne और आराम - खूबसूरत प्रकृति सुविधाओं को बचाया जाएगा.
Murr दीवार, ऊर्ध्वाधर, राख या सीमेंट Zoanpo गांव में किया जाता है. वृक्ष के समान काम मण्डी में उपलब्ध क्षेत्र के ऊपरी भाग के Zoanpoan दीवारों - पौधों, घास और झाड़ियों उपयुक्त हैं. चान या Zoanpa छत के भीतरी भाग के रूप में सुंदर है Sarkandoan करने के लिए इस्तेमाल किया. मंडन देखभाल के पारंपरिक शिल्प और अनुष्ठान में लिया जाता है. Zoanpo पारंपरिक फर्श Lipa गोबर चित्रित किया है. Zoanpo खेत Basaoo उच्च ऊंचाई स्थान या Dhore पर है. वायु अंतरिक्ष फिक्सिंग, पानी और खेतों की रखवाली करने से पहले खाते में ले लिया है. हवाई समय का पूरा निर्माण के Zoanpa दृष्टिकोण माना जाता है. करने के लिए आता Moake खिड़कियां सामना कर रहे हैं दीवारें, जो हवा निरंतर पर रखा चेहरा.
सिंध सीमा क्षेत्र Zoanpa शैली बन अधिक हैं. सिंध Zoanpo Zoanpo के थार क्षेत्र के लिए उन्हें Gehru Hanto Pndo के भीतरी भाग को आकर्षक और रंगीन बनाने की तरह है. उसकी सूखी, और खाली niches और Mokhoan लोक संस्कृति आसपास स्थानों पर Maandne Maande जाते हैं. Maandne Bhuarrangee, और ये चमकीले रंग के होते हैं. Pndo और कलाई घड़ी उनके दंगा के प्रभाव से बना है. ये वृक्ष के समान Maandono लोक - शैली पौधे, वनस्पति, सूर्य, Chanu, बेल -; Bute पशु - पक्षियों, लोक वाद्ययंत्र, लोक देवताओं मनमोहक चित्रण कर रहे हैं. कहीं - कहीं Gehru Chitaram की सतह के बजाय सफेद रंग Pndo मूर्ति हैं.
आंगन Zoanpa थोड़ा सजाया है. घुन और झालर और Gehru Pndo और बीच - बीच कर अदालत मांड Maandne आकर्षक बना दिया है के आंगन में गोबर का प्लास्टर चिकनी. Zoanpa पांच सितारा सामान्य घरों के Hotleo शान बन गए हैं. - घरेलू विदेशी पर्यटकों, खासकर Zoanpoan मांग. Charrayo Zopoan भी सार्वजनिक अधिकारियों के शौकीन है. प्रत्येक अधिकारी के बंगले आमतौर पर दो - तीन Zoanpa प्रतीत होगा.
सोमवार, 26 अप्रैल 2010
BARMER NEWS TRACK
Rajasthan's Barmer district of Ranka Algoza mystics have full right on playing. The district Banzaradz, Kundanpur, Burhan's fried, Bhuniaya, Hllysar, Zrp and Derasar village 'Algoza Aadkoan village of' known, but the village Rwdhia Algoza player is the top scorer in villages. Barmer - Ahmedabad road five kilometers from the village asking for the Milky village between sand dunes of the famous player Dhodhe Algoje Alhariyoan Khan's melodious voice has already made a mark. Asiad opening ceremony held in New Delhi -82 Dhodhe Algoje Khan's tunes from the audience's demands and began recording their tunes on five consecutive days the organizers had to ring. Dhodhe Khan village, with its milky art - with the pride of Rajasthan and India have increased.
Algoza Neadkat, ShabdKosh, delayed, bamboo tube, or Kangor nut is made of wood. Single village in Barmer tehsil Chauahtten Bhil ShabdKosh Laxman and pearls made of wood Algoje take great beauty. Algoje two different - different Bansurenuma long - has little scalpels. 4 through 7 are holes in the hose. Both are Matsyakar mouth tube. Both put the hose in the mouth when the big hose Dhodhe Khan breath dragging small tube remove the vowels, the listening and viewing not live without being able to fascinate. Algoje mount the music - music to music lovers descent turn wet with juice.
Khan explains that Ssuser Dhodhe to play musical instrument requires discipline and strength breath. Algoje made without discipline can not walk with ease on the fingers. Musician family Dhodhe Khan to quantify, but the young age of 10 after the funeral of her father, Meera Khan Pir Jamal sugar, Pakistan Kamaro decent shelter in the village school to go Hieohni Algoza recital had to be an expert in lore. After six years of hard practice by sparkles like Kundan Dhodhe Khan Pakistan's young left their mark in Algoza Aadkoan. Pakistani villagers living Dhodhe Hadarabad area Akarpur Meera Khan Khan's father married the girl Maariyal axle of the village was milky. Sharif Khan studied at Dhodhe Kamaro returned after mother's milky and the shadows began to move forward in cooperation.
Ramah, PIR, Hitai, Dhotia, Kanewda, Mlahud, Anb, Prehatia Asa processional tunes on the Dhodhe Algoje remove Khan, the hymns are wet from Hkathyras lover. Marriage - marriage in the Aladela, Sehero, Doro, rosemary, Arni, the music and Mahendra Algoje archway songs - Muml, Mir - Mahendra, Dhola - Maru, Ssstsi - Puananu, Ujlly - firstborn and visa Sort love the stories on the Algoje Playable in the Dhodhe Khan have mastered. Dhodhe Dhuno expert in Sindhi and Rana Khan - Mahendra, etc. Sindhi tunes in quite skilfully present. Raga Malhar, Shyam Kalyan, Rana, court, Kalvada are proficient in the Dhodhe Khan. Mutha Hameer Amarkot artist, Latif Mansion, Nara Dora the Hanif, the simple Aliplly Muveen and Tamochi, Dhodhe Khan's favorite artists are.
Nehru Yuva Kendra local Jjmanoan by removing them from the world's first tried to make public display of art. Nehru Yuva Kendra in the past two decades and traces the various cultural events under the leadership of the institution Rupan Jodhpur, Lucknow, Delhi, Calcutta, Madras, in Belgaum Dhodhe Khan proved his art talent, the 15-20 year AIR them Jodhpur programs were also invited. Dhodhe Khan, where his dedication to art depicts everyday while everyone showed respect for their art.
Dhodhe Khan Algoje the sandy area that the government created more and more popular. Should be made compulsory in schools, folk music, musical instruments, such as when Algoje society again will be distinguished.
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रविवार, 25 अप्रैल 2010
शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010
camel beauti parlor in desert
Barmer: India - Pakistan border settled on the desert district of Barmer camels worldwide keep their own identity. 'Desert ship' cattleman known as special care of the camels are. A decade decline in the number of camels. Never in rural Anchaloan Camel home - are needed. Desert Dhoroan better communication and transport was used as the instrument of camels, the farm work of plowing through the village used camels.
Communication, transport and agricultural resources, the growing influence of modern means and lowered Mahtw of the camels. Camel fairs ever animal life used to be. Looked at the price of camels million rupees. Parents today camel Paryaptar price of camels in cattle fairs Peshupalako meet the new - are new to taking care. Utoan to enhance the beauty parlors have opened their special Bjoiete where camels decorated - is decorated.
Dergo Byugte same salon parlor, where camels are provided exclusively for cutting. Magaram salon operator explains that prices may fall due to camels camel's parents stood before the crisis of livelihood. Camel foster their camels to look special by making specialized cutting Dhyaana attract buyers. The camel Palako Sometimes the buyers tend to get better. Nowadays camels on the body, particularly by cutting the hair, like - like tattoos are made. The tattoo camels produce special attractions. Cutting 500 to 700 per Magaram expert tattoo take to Spye.
Meanwhile, coming in Jaisalmer domestic - camel special attraction for foreign tourists, such centers are. In the desert 'Camel Safari' special cutting of the camels are booking right away, as well as get a good fare. 'Camel Safari "Sadiq Khan, said the work the camels as spending money to enhance benefits. Like camels hair - to make such cutting flowers - leaves, Bell - Bute, birds etc. are Ukaerte design. Dijainean really like this kind of tourists come and 'Camel Safari' first choice to have such a camel.
Former salon camels were not such, but its prevalence in various animal fairs Barmer and Jaisalmer in view 'Camel Bjoate parlors' are exposed to significant amounts, the 'desert ship' camels of the grooming work. Cattleman himself had previously cut the hair of camels. In rural areas, gather in one place all the stock raising camels hair was cut as collective. Now the trend has increased Sailoonoan Camel.
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